याद है मुझे,
मैंने तुम्हें अपनी एक नई कविता सुनाई थी,
जाने क्यूँ उसे सुन तुम्हारी आँखें भर आई थी,
पूछने पर तुमने कुछ बताया नही था,
मैंने भी अकेले बैठ तुम्हारे उन आंसूओं के बारे में सोचा था,
पर चाह कर भी कुछ समझ न आया था!!
कुछ दिनों पहले,
हाँ अभी की तो बात है,
मैंने तुम्हारी दराज में वही कविता फ़िर पायी थी,
इतने सालों में मैं तो उसे भूल गया,
पर शायद तुम उसे भुला नही पाई थी,
पूछने पर फ़िर तुमने उस बात को टाल दिया था,
उस कविता में ऐसा क्या दिखा तुम्हें,
चाह कर भी,
मेरी कुछ समझ में न आया था!!
ये शायद तुम्हें नहीं पता हो,
पर मैंने कुछ पढ़ा था अभी,
शायद वोह चिट्ठी थी,
जो तुमने पापा को लिखी थी,
लिखा था की बेटे ने एक सुंदर चीज़ लिखी है,
"माँ" नाम की एक कविता लिखी है।
शायद यही बात रही होगी,
मैंने जो ऐसे हीं लिख डाला था,
वोः शायद मेरी "माँ" के दिल के करीब होगी.
माँ का दिल इतना नाज़ुक क्यूँ होता है,
शायद तब भी मुझे समझ न आया था,
और आज सब जान कर भी,
मुझे समझ में न आया है!!!
(कृपया, पाठकों को अगर ये अच्छी न लगे, तो मैं माफ़ी चाहता हूँ , मैंने ऐसे हीं कुछ लिखा है आज भी, क्युंकी माँ के बारे में लिखना शायद मेरी बस की बात नहीं!!)
फ़कीर(अमित)
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2 comments:
this is the best one.........
simply marvellous.......
while i was reading it i seriously felt that someting very pious and devine is reaching my whole body through the eyes.......
your writing has reached that extraordinary level(i am sure)
congrats........[:)]
thnx... but lots of improvements are needed yet!!!..:)
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