इंतज़ार करना पसंद नहीं,
पर कर लूँगा,
चलो ये भी सही ।
इस इंतज़ार के आगे अगर बीते को भूलने की आस है,
तो इस इंतज़ार से मुझे इनकार नही ।
दिये को देख रातें काटी हैं,
जनवरी की रात थी,
शरीर पर एक ढंग का कपड़ा नहीं,
चिथरों में लिपटा मेरा शरीर जितना ठिठूरता,
उतनी मुझे तुम्हारी आस तुम्हारे पास खीच लेती थी,
शरीर कांपता था,
पर मानो वो दिया और कहीं नहीं,
किसी ने मेरे दिल में जला रखा था,
शायद बाकी कुछ रह हीं नहीं गया था,
बस मैं था और तुम्हारा इंतज़ार था ।
क्या किस्मत,
क्या समय,
क्या देखना,
क्या सुनना,
चलना,
रुक जाना,
जागते हुए सपने देखना,
और सोते हुए जागना,
कुछ रह हीं नहीं गया है शायद,
देखूं तो बस यही समझ आता है,
कभी मुझे इंतज़ार करना पसंद नहीं था,
और आज बैठा हूँ एक युग से तुम्हारे इंतज़ार में..........
मन हमारा जो लिखे,
वो तुम्हारा!!!
अमित मोहन
Dec 30, 2008
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1 comment:
अच्छी कविता है। हिन्दी में और भी लिखिये।
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